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दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। आद॑दे॒ नार्य॑सी॒दम॒हꣳ रक्ष॑सां ग्री॒वाऽअपि॑ कृन्तामि। बृ॒हन्न॑सि बृ॒हद्र॑वा बृह॒तीमिन्द्रा॑य॒ वाचं॑ वद ॥२२॥

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पद पाठ

दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्यामिति॒ हस्ता॑ऽभ्याम्। आद॑दे। नारी॑। अ॒सि॒। इ॒दम्। अ॒हम्। रक्ष॑साम्। ग्री॒वाः। अपि॑। कृ॒न्ता॒मि॒। बृ॒हन्। अ॒सि॒। बृ॒हद्र॑वा॒ इति॑ बृ॒हत्ऽर॑वाः। बृ॒ह॒तीम्। इन्द्रा॑य। वाच॑म्। व॒द॒ ॥२२॥

यजुर्वेद » अध्याय:5» मन्त्र:22


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर यह यज्ञ किसलिये करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् मनुष्य ! जैसे मैं (देवस्य) सब को प्रकाश करने आनन्द देने वा (सवितुः) सकल जगत् को उत्पन्न करनेवाले ईश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए संसार में जिस यज्ञ को (आददे) ग्रहण करता हूँ, वैसे तू भी (त्वा) उसको ग्रहण कर। जैसे मैं (नारी) यज्ञक्रिया वा (इदम्) यज्ञ के अनुष्ठान का ग्रहण करता हूँ, वैसे तू भी ग्रहण कर। जैसे (अहम्) मैं (रक्षसाम्) दुष्ट स्वभाववाले शुत्रओं के (ग्रीवाः) शिरों को भी (अपिकृन्तामि) छेदन करता हूँ, वैसे तुम भी छेदन करो। जैसे मैं इस अनुष्ठान से (बृहद्रवाः) बड़ाई पाया बड़ा होता हूँ, वैसे तू भी हो और जैसे मैं (इन्द्राय) परमैश्वर्य की प्राप्ति के लिये (बृहतीम्) बड़ी (वाचम्) वाणी का उपदेश करता हूँ, वैसे तू भी (वद) कर ॥२२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग ईश्वर की सृष्टि में विद्या से पदार्थों की परीक्षा करके कार्य्यों में उपयोग कर सुखों को प्राप्त करते हैं, वैसे ही सब मनुष्यों को इस यज्ञ का अनुष्ठान कर सब सुखों को पहुँचना चाहिये ॥२२॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरयं यज्ञः किमर्थः कर्त्तव्य इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(देवस्य) सर्वप्रकाशकस्यानन्दप्रदेश्वरस्य (त्वा) तम् (सवितुः) सकलस्य जगत उत्पादकस्य (प्रसवे) यथा सृष्टौ (अश्विनोः) प्राणापानयोरध्वर्य्योर्वा (बाहुभ्याम्) यथा बलवीर्याभ्याम् (पूष्णः) पुष्टिकारिकायाः पृथिव्याः। पूषेति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (हस्ताभ्याम्) यथाऽऽनन्दप्रदाभ्यां धारणाकर्षणाभ्याम् (आ) समन्तात् (ददे) स्वीकरोमि (नारी) नराणामियं क्रिया (असि) अस्ति वा, अत्र सर्वत्र व्यत्ययः। (इदम्) प्रत्यक्षं पालकं कर्म (अहम्) (रक्षसाम्) दुष्टस्वभावानाम् (ग्रीवाः) कण्ठात् (अपि) निश्चये (कृन्तामि) छिन्नद्मि (बृहत्) वर्धमानो वर्धयन् (असि) अस्ति वा (बृहद्रवाः) यथा बृहच्छब्दवान् (बृहतीम्) महतीम् (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रापकाय (वाचम्) वाणीम् (वद) उपदिश। अयं मन्त्रः (शत०३.५.४.४-८) व्याख्यातः ॥२२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! यथाऽहं देवस्य सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्यथा बाहुभ्यां पूष्णो यथा हस्ताभ्यां यं यज्ञमाददे त्वा तं त्वमपि तथादत्स्व। यथाऽहं नारीं यज्ञक्रियामिदं यज्ञानुष्ठानं कर्म चाददे तथा त्वमप्यादत्स्व। यथाऽहं रक्षसां ग्रीवाः कृन्तामि तथा त्वमपि कृन्त। यथा चाहमेतदनुष्ठानेन बृहद्रवा बृहन्भवामि तथा त्वमपि भव। यथा चाहमिन्द्राय बृहतीं वाचं वदामि तथा चैतां त्वमपि वद ॥२२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वद्भिरीश्वरसृष्टौ विद्यया पदार्थान् सुपरीक्ष्य कार्येषूपयुज्य सुखानि प्राप्यन्ते, तथैव मनुष्यैरिदमनुष्ठाय सर्वाणि सुखानि प्रापणीयानि ॥२२॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्याप्रमाणे विद्वान लोक विश्वातील (सृष्टीतील) पदार्थांचे ज्ञान प्राप्त करून घेतात, त्यांची परीक्षा करून त्यांचा कार्यात उपयोग करून घेतात व सुखी होतात. त्याप्रमाणेच सर्व माणसांनी या प्रकारच्या यज्ञाचे अनुष्ठान करून सर्वांना सुख द्यावे.